Editorial

एडिटोरियल-बूढ़ा होता जा रहा है मेरा पहाड़

भवाली: भगत सिंह नेगी- मेरो पहाड़, मेरो गांव ! अनायास ही किसी भी अधेड़ उम्र के व्यक्ति के चेहरे के भाव बदल जाते है जो कभी पहाड़ मे रहा हो।

धार्मिक ग्रन्थो में केदारखंड, मानसखंड नाम से चर्चित देव भूमि, महान शासको कुषाण, कुणिद, गुप्त, कत्यूरी, चन्द्र, पाल की कर्म भूमि…. मेरो उत्तराखण्ड।

लम्बे जद्योजहद कुर्बानियों के बाद मेरा उत्तरांचल…….आज का उत्तराखण्ड ।

चारो ओर खूबसूरत वादियां, नदियॉ, जंगल, सरल स्वभाव के मनुष्य फिर भी राष्ट्र की मुख्यधारा में उत्तराखण्ड पिछड़ता हुआ। जलश्रोत सूख रहे है, प्रदूषण बढ़ रहा है।

पलायन, घटती कृषि, नशा औैर भी बहुत कुछ……है समस्या……………बल।

2011:कभी खुशहाल किसान वाला गांव आज उजड़ गया है। 09 प्रतिशत गांव जनविहीन तथा 405 में 10 परिवारों से भी

आखिर क्यां मजबूर है पलायन को ये गांव? क्यां नही मिलती सुविधाए? क्यां नहीं लेता कोई सुध? गांव क्या सिर्फ मेरे आमा बूबू की आखिरी सांसो की प्रतिक्षा मे है? सुदुर दुनियां की भीड़ से कभी चेल- ब्वारी या ददा-कका का फोन उनके जीवन के धागे को बॉधे हैं। मोटर-टैक्सी की पोंं-पों से गॉव का दिल धड़कता है कि कोई परदेशी आया! पर भाबर-तराई मे बसते कंक्रीट के जंगलो ने पहाड़ के धधकते जंगलो का दर्द सुनना शायद बंद कर दिया है। घरेलू जरूरतो की सूली पर चढ़ गया मेरा गॉव ! अब तो बिल्डरो की गिद्ध दृष्टि की चपेट मे है मेरा पहाड़! होटल, गेस्ट हाउस, बंगले, कोठियॉ, एपार्टमेन्ट, फ्लैट क्या कुछ नही बन रहा यहॉ घ् पर आज भी आमा बांज का गट्ठर, बूबू-ददा लकड़ी का गट्ठर सर पर रख कर दूर मोटर की आवाज सुनकर कह उठते हैं………तारू…..
साल 14 अगस्त 2015- हिल पोस्ट सूत्र की माने तो 17000 जल श्रोत सूख चुके है। और पहाड़ी दानव (जे०सी०बी) के हाथ उत्तराखण्ड की छाती खोद-खोद कर इसका रूप बिगाड़ रहे है। बारूद का प्रयोग, बिजली परियोजना भी पर्यावरण और जल संकट का कारण बन रहा है।

 

केदारनाथ त्रासदी 2013 किससे छुपी नहीं है भूकंप और अन्य प्राकृतिक आपदाएं गांव छोडने को मजबूर करती हैं। एक तो सिंचाई असुविधा उपर से जंगली जानवर भालू, बंदर, हाथी फसल चौपट करने पर तुले रहते है।(वर्ष 2001-2011) के बीच पहाड़ी जनसंख्या वृद्धि मे 50 प्रतिशत की दर से गिरावट आई है।

जबकि मैदानी क्षेत्रां में भी 25% जनसंख्या वृद्धि दर रिकार्ड की गई। वहीं पर्वतीय जिलों में भी खाद्यान्नो की दर में भी 10% की गिरावट हुई है। (श्रोत : संख्यकीय डायरी 2013-14 उ०ख०राज्य सरकार ) । इस तेजी से पलायन के कारण जल, जंगल, जमीन के विकास का सूत्र भी असफल ही दिखाई दे रहा है।

गंगा स्वच्छता, स्वच्छता, राजधानी निमार्ण, मनरेगा और भी कई योजनाएॅ सरकारी फाइलों में घूम रही हैं परन्तु किसान की दो वक्त की रोटी का वायदा पूरा होता नजर नही आ रहा है, नतीजन अच्छी जिन्दगी के लिए दाज्यू बड़े शहर को पलायन कर जाते है। फिर बूढी मॉ को इलाज के लिए या पिता की ऑखों के ऑपरेशन को गॉव छोडना पड़ रहा है अब कौन समझाए कि मां तो शहरों के शोरगुल में और बीमार हो रही है और बूबू तो धुंधली रोशनी में ही बाखली, पंगडंडियो में खुश है। पर जिद है माता पिता को अच्छा जीवन देना, बच्चो की पढाई, फिर तरक्की तो पैसां से ही आती है साहब…, न की जल जंगल सें।Image result for नैनीताल हॉस्पिटलफिर पहाड़ में न तो मास्साहब पढ़ाना चाहते है न डॉक साहब इलाज करना, फिर अधिकारी भी तो देहरादून ही पसन्द करते हैं। योजना आयोग 2011 की रिपोर्ट की माने तो उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों में कोई बड़ी फैक्ट्री पर निवेश नहीं हुआ हैं। 5000 गॉव आज भी सड़क से कोसां दूर हैं जहॉ बच्चे मोटर को देखकर उत्सुकता से तालियॉ बजाने लगते है। आज भी पर्वतीय कृषि का कुल 18 प्रतिशत भाग ही सिंचाई पा सका है।ॉयहां न तो कोई रॉबिन हुड है और न ही कोई सॉंई अवतार । बस अपनी-अपनी डफली अपना-अपना राग । दिन ब दिन राजनीति गहरी होती जा रही है और ददा रोटी के लिए माटी से दूर…….दूर…….बहुत दूर और फिर खो जाता है धूल, धॅुए के बादल में । फिर छोटा भाई भी एक दिन………………..।

 

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भगत सिंह नेगी
गोविन्द बल्लभ पंत इन्टर कालेज ,भवाली, नैनीताल

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